लेख : डॉ.भीमराव अंबेडकर एक प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ विधिवेत्ता होने के साथ-साथ एक कुशल अर्थशास्त्री भी थे। ! अंबेडकर ! हां भाई हां मान्यवर , मानधन , राष्ट्र निर्माता ही नहीं राष्ट्र का सेवक मरणोपरांत भारत रत्न से विभूषित डॉ.भीमराव अंबेडकर का नाम कौन नहीं जानता । भारतीय जनगण ही नहीं विश्व के राजनीतिज्ञ और विधिज्ञ भी इस महामानव का नाम ससम्मान लेता है। इनका बचपन ऐसी सामाजिक आर्थिक दशा में बीता जहां दलितों को निम्न स्थान प्राप्त था। दलितों के बच्चे पाठशाला में बैठने के लिए स्वयं ही टाट -पट्टी लेकर जाते थे। उन्हें अन्य जाति के बच्चों के साथ बैठने की अनुमति नहीं थी। डॉ. अंबेडकर की मन पर छुआछूत का व्यापक असर पड़ा। जो बाद में भारतीय संविधान में परिलक्षित होता रहा। मन मसोस कर भी वे अपने दोनों कार्य पढ़ाई और निम्न वर्गीय के हित और कल्याण के लिए हमेशा सोचते रहते थे। यदि बड़ौदा के महाराजा गायकवाड ने इनकी मदद न की होती तो शायद इस मुकाम पर नहीं पहुंच पाते जिस पर कि वे पहुंचे। तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था ,अशिक्षा ,अंधविश्वास ने उन्हें काफी पीड़ा पहुंचाई। महाराजा गायकवाड ने उनकी प्रतिभा को देखते हुए उन्हें ₹25 रूपये प्रतिमाह छात्रवृत्ति के तौर पर उपलब्ध कराई इस कारण स्कूली शिक्षा समाप्त कर एल्फिंसटन कॉलेज में दाखिल हो गए और 1912 में ग्रेजुएट पास की एवं 1915 में एम.ए.अर्थशास्त्र विषय से अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय से पास किए।1916 में उन्होंने इसी विश्वविद्यालय से "ब्रिटिश इंडिया के प्रांतों में वित्तीय स्थिति का विश्लेषण" नामक विषय पर पी.एच.डी.की उपाधि हासिल की। 1922 मे पुन: लंदन विश्वविद्यालय से डॉ.अम्बेडकर ने पी.एच.डी.की दूसरी डिग्री हासिल की। इस बार इनके शोध का विषय "रूपये की समस्या"था। उनका यह विषय सामयिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था क्योंकि उन दिनों भारतीय वस्त्र उद्योग व निर्यात ब्रिटिश नीतियों के कारण गहरे आर्थिक संकट से जूझ रहा था। अम्बेडकर साहब ने देशी- विदेशी सामाजिक व्यवस्थाओं को बहुत नजदीक से देखा और अनुभव किया। उन्हें लगा कि भारत में तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में छूत -अछूत ,जाति आधारित मौलिक सिद्धांत पर आधारित थी । वहीं विदेशों में उन्हें इन आधारों पर कहीं भी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा ।कुशाग्र बुद्धि होने का कारण उन्होंने देश व विदेश की सामाजिक व्यवस्था का अपने ढंग से न केवल मूल्यांकन किया बल्कि उन विसंगतियों को भी समझा जो भारतीय समाज में छुआछूत के आधार पर मानव से मानव के साथ अप्रिय व्यवहार के रूप में परिलक्षित होती रही थी। ब्रिटिश शासन के दौरान लंदन के स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स एवं पॉलीटिकल साइंस में प्रवेश भी मिला लेकिन गायकवाड शासन की अनुबंध के कारण वे पढ़ाई छोड़कर भारत वापस आ गए और बड़ौदा राज्य में मिलिट्री सचिव पद पर कार्य करना पड़ा। 19 में 26 डॉ.अंबेडकर ने हिल्टन आयोग के समक्ष पेश होकर विनिमय दर व्यवस्था पर जो तर्कपूर्ण प्रस्तुति की थी उसे आज भी मिसाल के रूप में पेश किया जाता है । डॉ. अंबेडकर को गांधीवादी, आर्थिक व सामाजिक नीतियां भी पसंद नहीं थी। इसकी वजह गांधी जी का बड़े उद्योगों का पक्षधर नहीं होना था। डॉ.अंबेडकर की मान्यता थी कि उधोगीकरण और शहरीकरण से ही भारतीय समाज में व्यापक छुआछूत और गहरी सामाजिक असमानता कमी आ सकती है । डॉ अंबेडकर प्रजातांत्रिक संसदीय प्रणाली के प्रबल समर्थक थे और उनका विश्वास था कि भारत में इसी शासन व्यवस्था से समस्याओं का निदान हो सकता है।
1927 में डॉक्टर अंबेडकर ने बहिष्कृत भारत पाक्षिक समाचार पत्र निकाला। यहीं से उनका प्रखर सामाजिक चिंतन सामाजिक बदलाव की परिप्रेक्ष्य में प्रारंभ हुआ । इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना के द्वारा उन्होंने दलित मजदूर और किसानों की अनेक समस्याओं को उल्लेखित किया । 1937 में मुंबई के चुनाव में इनकी पार्टी को 15 सीटों में से 13 सीटों पर जीत मिली। हालांकि अंबेडकर गांधी जी के दलितोद्धार के तरीकों से सहमत नहीं थे लेकिन अपनी विचारधारा के कारण उन्होंने कांग्रेस के बड़े नेताओं - नेहरू और पटेल को अपनी प्रतिभा से अपनी ओर आकर्षित किया। डॉ.अंबेडकर की अध्यक्षता में भारत की लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष एवं समाजवादी संविधान की संरचना हुई। जिसमें मानव की मौलिक अधिकारों की पूर्ण सुरक्षा की गई । 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान राष्ट्र को समर्पित कर दिया गया । 25 मई 1950 को डॉ अंबेडकर ने कोलंबो की यात्रा की । 15 अप्रैल 1951 को डॉ. अंबेडकर ने दिल्ली में अंबेडकर भवन का शिलान्यास किया । इसी वर्ष 27 सितंबर को डॉ. अंबेडकर ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया । इस पद पर रहते हुए डॉ. अंबेडकर ने हिंदू कोड बिल लागू कराया । इस बिल का उद्देश्य हिंदुओं के सामाजिक जीवन में सुधार लाना था । इसके अलावा तलाक की व्यवस्था और स्त्रियों को सम्पत्ति में हिस्सा दिलाना था । पर्याप्त सम्मान और राजनीतिक पद हासिल हो जाने के बाद ही वे सामाजिक व्यवस्था से संतुष्ट नहीं थे। इस कारण उन्होंने 14 अक्टूबर 1956को बौद्ध धर्म अपना लिया। डॉ.अंबेडकर ने आर्थिक विकास पूंजी अर्जुन के लिए भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिस्थापित नैतिक और मानवीय मूल्यों पर अधिक जोर दिया था। उनका कहना था कि सोवियत रूस की मॉडल पर सहकारी व सामूहिक कृषि के द्वारा ही दलितों का विकास हो सकता है । तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी इसी व्यवस्था के पक्षधर थे। उन्होंने इसके क्रियान्वयन के लिए डॉ.अम्बेडकर को योजना आयोग का अध्यक्ष पद देने का वादा किया था। अंबेडकर ने ब्रिटिश काल में वाईसराय काउंसिल के सदस्य के रूप में श्रमिकों व गरीब लोगों के लिए भी कई श्रम कानून और सामाजिक सुरक्षा योजना भी बनाई जिन पर आज भी काफी जोर दिया जा रहा है। डॉ अंबेडकर पंचायती राज व्यवस्था और ग्राम स्तर पर सत्ता के विकेंद्रीकरण के हक में नहीं थे। उनका कहना था कि ग्रामीण क्षेत्रों के विकेंद्रीकरण से दलित व गरीबों पर आर्थिक अन्याय व उत्पीड़न और बैठेगा। दलितों को आरक्षण देने की मांग के सूत्रधार के रूप में डॉ. अंबेडकर का योगदान अत्यधिक रहा। दलित उद्धार के संदर्भ में उन्होंने अपनी पीड़ा को कभी नहीं छुपाया।
आज हम 21वीं सदी के वैश्वीकरण एवं उतर आधुनिकता के युग में प्रवेश कर चुके हैं और एक ऐसे वातावरण में जीवन बीता रहे हैं जिसमें भौतिकवादिता,आधुनिकता,
व्यक्तिगत ईर्ष्या , जातिगत द्वेष और क्षेत्रीयता आदि की भावना चारों ओर दिखलाई पड़ रही है।असमानता एक भयंकर बीमारी है जो भारत में हर तरफ अपनी जड़ें मजबूती से जमाते हुई है। सामाजिक,आर्थिक शैक्षणिक, धार्मिक,लैंगिक एवं राजनीतिक असमानता अन्यायकारी रुप धारण कर चुकी हैं। यह राजनीतिक लोकतंत्र के लिए खतरा बनती जा रही है। डॉ.अम्बेडकर ने राष्ट्र को चेताया था कि भारत मे राजनीतिक समानता एवं दूसरी तरफ सामाजिक एवं आर्थिक असामानता का अंतर्विरोध स्थापित हो रहा है इसे शीघ्र समाप्त करने की जरूरत है, अन्यथा गैर-बराबरी के शिकार समूह राजनीतिक बराबरी में अपना विश्वास खो देंगे। आज भी डॉ.अम्बेडकर की चेतावनी प्रासंगिक है।
प्रेषक :-
संजीव कुमार , सतीश कुमार
सहायक प्रोफेसर
नवादा विधि महाविद्यालय नवादा
सम्बद्धता मगध विश्वविद्यालय बोधगया
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