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बनारस की ‘तिरंगी बर्फी’, जिसने उड़ा दी फिरंगियों की नींद; आजादी की लड़ाई में अहम योगदान

सन 1942 में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का प्रस्ताव पारित किया तो देशभर में विरोध प्रदर्शन और जुलूस निकालने की घटनाएं...


सन 1942 में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का प्रस्ताव पारित किया तो देशभर में विरोध प्रदर्शन और जुलूस निकालने की घटनाएं सामने आने लगीं. बनारस वासियों ने भी इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. जिले भर में नौ से 28 अगस्त तक लगातार क्रांतिकारियों का जुलूस निकालता रहा. 11 अगस्त को कचहरी पर झंडा फहराया गया था. 13 से 28 अगस्त के बीच चार दिन तत्कालीन बनारस के चार स्थानों पर क्रांतिकारियों पर फायरिंग हुई थी, जिसमें 15 स्वतंत्रता सेनानी शहीद हो गए थे.


वाराणसी में ‘अगस्त क्रांति’ की अलख जगाने वालों में बाबू संपूर्णानंद, पंडित कमलापति त्रिपाठी, रामसूरत मिश्र, चंद्रिका शर्मा, ऋषि नारायण शास्त्री, काम्ता प्रसाद विद्यार्थी, श्रीप्रकाश जी, बीरबल सिंह, राजाराम शास्त्री, विश्वनाथ शर्मा, रघुनाथ सिंह, राजनारायण सिंह, प्रभुनारायण सिंह, देवमूर्ति शर्मा, कृष्ण चंद्र शर्मा, मुकुट बिहारी लाल, गोविंद मालवीय, डॉ. गौरोला आदि प्रमुख थे.

 

बढ़ती हिंसा को देखते हुए अंग्रेज सरकार ने तिरंगा लेकर चलने और तिरंगा फहराने पर प्रतिबंध लगा दिया. जब तिरंगे पर प्रतिबंध लगा तो बनारस के बुद्धिजीवी सोच में पड़ गए कि आखिर अब देश के प्रति समर्पण की भावना और राष्ट्र प्रेम को प्रदर्शित करने का कौन सा तरीका निकाला जाए.


सामने आए काशी के हलवाई समाज के लोग, तिरंगी बर्फी और जवाहर लड्डू के साथ गांधी गौरव जैसे मिठाई अस्तित्व में आईं….


राष्ट्रवाद और देश प्रेम को प्रदर्शित करने का अनोखा तरीका ईजाद किया काशी के मिठाई वालों ने. ठठेरी बाजार वाले मदन गोपाल गुप्ता और कचौड़ी गली वाले बचानू साव जैसे बड़े और तब के फेमस हलवाई सामने आए. कई प्रयोग करने के बाद ‘तिरंगी बर्फी’ का अस्तित्व सामने आया. मदन गोपाल गुप्ता के प्रपौत्र और श्रीराम भंडार के अधिष्ठाता अरुण गुप्ता ने बताया कि दादाजी ने बादाम, पिस्ता और केसर की मदद से तिरंगे के रंग वाली बर्फी का ईजाद किया और उसे ‘तिरंगी बर्फी’ का नाम दिया.


‘जवाहर लड्डू’ जैसी मिठाइयां इसकी मिसाल


तिरंगी बर्फी के साथ ही जवाहर लड्डू, गांधी गौरव और वल्लभ सन्देश जैसी मिठाइयां भी मेरे परदादा जी ने बनाई थीं. उस दौर में काशी के हलवाई समाज ने अपना राष्ट्र प्रेम और देश के प्रति उनकी जो श्रद्धा थी, उसका तो उन्होंने प्रदर्शन किया ही. साथ ही अंग्रेजों के तिरंगे पर प्रतिबंध लगाने का भी तोड़ निकाल लिया. काशी के संस्कृति कर्मी अमिताभ भट्टाचार्य बताते हैं कि काशी का हलवाई समाज हमेशा से जागरूक समाज रहा है. ये सिर्फ जीविकोपार्जन या अर्थ संग्रहण के लिए ही मिठाइयों का व्यापार नहीं करते थे, बल्कि देश और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को भी इन्होंने बखूबी निभाया है. तिरंगी बर्फी और जवाहर लड्डू जैसी मिठाइयां इसकी मिसाल हैं.


2024 में तिरंगी बर्फी को जिआई टैग मिला


बीएचयू में इतिहास विभाग के प्रोफेसर ताबिर कलाम ने बताया कि तिरंगी बर्फी के प्रति लोगों की भावनाओं ने उसकी लोकप्रियता बढ़ा दी थी. तिरंगे पर प्रतिबंध ने लोगों में तिरंगी बर्फी और अन्य मिठाइयां, जो उस समय के बड़े नेताओं के नाम पर थीं, उसकी डिमांड बढ़ा दी थी. अरुण गुप्ता ने बताया कि आज भी 15 अगस्त और 26 जनवरी के मौके पर तिरंगी बर्फी और जवाहर लड्डू की बिक्री बढ़ जाती है. हालांकि अब तिरंगी बर्फी बादाम पिस्ता के बजाय काजू और मावा से बनाई जाती है. आज तिरंगी बर्फी 600 रुपए किलो, जबकि जवाहर लड्डू 1000 रुपए किलो बिक रहा है. तिरंगी बर्फी के इतिहास और उसका समाज पर पड़े प्रभाव को देखते हुए 2024 में इसको भारत सरकार की तरफ से जिआई टैग मिला.




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