नब्बे के दशक के अंत और 2000 की शुरुआत में दिल्ली का अंसल प्लाजा सिर्फ एक मॉल नहीं था, बल्कि एक सपना था। साउथ दिल्ली के बीचों-बीच बसा यह अर...
नब्बे के दशक के अंत और 2000 की शुरुआत में दिल्ली का अंसल प्लाजा सिर्फ एक मॉल नहीं था, बल्कि एक सपना था। साउथ दिल्ली के बीचों-बीच बसा यह अर्ध-गोलाकार मॉल उस दौर में आधुनिकता की मिसाल था। परिवार, दोस्त, और प्रेमी जोडे यहां न सिर्फ खरीदारी के लिए आते थे, बल्कि यहां का हर पल उत्सव जैसा होता था। मैकडॉनल्ड्स की कतारें, प्लैनेट एम में कैसेट्स की खोज और बच्चों का खुली हवा में खेलना... यह सब अंसल प्लाजा को दिल्ली की शान बनाता था।
अब वीरान हो चुका है मॉल
लेकिन आज यह मॉल अपनी पुरानी रौनक खो चुका है। टूटी-फूटी एस्केलेटर और छत से टपकता पानी इसकी बदहाली की कहानी बयां कर रहा था। गलियारों में सन्नाटा पसरा था और कुछ कॉलेज के छात्र ही इधर-उधर भटकते नजर आए, जो शायद एक खुला कैफे या शांत कोना ढूंढ रहे थे। सफदरजंग एन्क्लेव की रहने वाली रचना तिवारी कहती हैं, 'पहले हम घंटों यहां बिताते थे। मेरे पति प्लैनेट एम में कैसेट्स देखते, बच्चे बाहर खेलते, और फिर हम सब मैकडॉनल्ड्स में साथ बैठते। अब तो यह मॉल भूतहा सा लगता है।'
अनोखा था दिल्ली का पहला मॉल
1999 में बना अंसल प्लाजा दिल्ली में मॉल संस्कृति की शुरुआत थी। इसका एम्फीथिएटर कॉन्सर्ट्स का गवाह बना, कांच का लिफ्ट बच्चों के लिए आश्चर्य था और मार्क्स एंड स्पेंसर, पिज्जा हट जैसे ब्रांड्स ने इसे पूरे शहर के लिए वीकेंड का पसंदीदा ठिकाना बना दिया। तिवारी याद करती हैं, 'मेरे बेटे को कांच की लिफ्ट में ऊपर-नीचे जाना बहुत पसंद था। उस समय यह अनोखा था।'
कोशिशें जो अधूरी रह गईं
2016 में अंसल प्रॉपर्टीज एंड इन्फ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड ने मॉल को फिर से जिंदा करने के लिए 10 करोड रुपये से ज्यादा का निवेश किया। नए रूफटॉप रेस्तरां, पार्किंग का विस्तार और डेकाथलॉन जैसे 16 नए ब्रांड्स लाने की योजना थी। एक मल्टीप्लेक्स का विचार भी आया, लेकिन वह परवान नहीं चढा। थोडे समय के लिए भीड फिर लौटी, लेकिन खराब प्रबंधन, अनियमित दुकानों का मिश्रण, और कोविड-19 ने सारी कोशिशों पर पानी फेर दिया। राहुल राठौर, जो रूफटॉप बार लिमिटलेस में काम करते हैं, कहते हैं, “शुरुआत में कुछ हलचल थी, लोग रील्स बनाने आते थे। लेकिन मॉल को और बेहतर खाने-पीने और खरीदारी के विकल्प चाहिए थे।”
बदहाली और असुरक्षा
आज मॉल की हालत ऐसी है कि पार्किंग में असुरक्षा का माहौल है। राठौर बताते हैं, “महिलाएं कहती हैं कि रात में पार्किंग सुरक्षित नहीं। कुछ महीने पहले एक कर्मचारी की बाइक चोरी हो गई। एसी कभी काम नहीं करता और छत से पानी टपकता रहता है।” डेकाथलॉन के पिछले साल चले जाने से मॉल को और झटका लगा।
उम्मीद की किरण?
कुछ नए स्टोर, जैसे दो महीने पहले खुला ‘द गेम पलासियो’, उम्मीद की किरण जगाने की कोशिश कर रहे हैं। इसके मैनेजर भास्कर जीना कहते हैं, “हफ्ते के दिन कुछ ही ग्राहक आते हैं, लेकिन वीकेंड पर 100 तक लोग आ जाते हैं।” फिर भी, ज्यादातर दुकानें बंद पडी हैं और रखरखाव की कमी साफ झलकती है।
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