आम आदमी पार्टी ने हाल ही में एक चौंकाने वाला फैसला लिया, जब उसने विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' से औपचारिक रूप से दूरी बना ली। AAP सांसद स...
आम आदमी पार्टी ने हाल ही में एक चौंकाने वाला फैसला लिया, जब उसने विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' से औपचारिक रूप से दूरी बना ली। AAP सांसद संजय सिंह ने साफ कहा, 'हम अब इंडिया गठबंधन का हिस्सा नहीं हैं। यह गठबंधन 2024 के लोकसभा चुनावों तक ही था।' यह बयान न केवल विपक्षी एकता के लिए एक झटका है, बल्कि भारतीय राजनीति में नए समीकरणों की शुरुआत का संकेत भी देता है। आखिर AAP ने यह कदम क्यों उठाया? क्या यह कांग्रेस के साथ बढ़ती कटुता का नतीजा है या अपनी क्षेत्रीय ताकत को मजबूत करने की रणनीति? चलिए समझते हैं।
गठबंधन की 'सीमित वैलिडिटी'
AAP का कहना है कि इंडिया गठबंधन की 'एक्सपायरी डेट' 2024 के लोकसभा चुनाव के साथ खत्म हो गई थी। संजय सिंह ने स्पष्ट किया कि गठबंधन का मकसद बीजेपी को हराना था, जिसमें विपक्ष ने 240 सीटें हासिल कीं। लेकिन अब AAP का मानना है कि गठबंधन का उद्देश्य पूरा हो चुका है। दिल्ली और हरियाणा विधानसभा चुनावों में AAP ने अकेले दम पर लड़ने का फैसला किया और पंजाब व गुजरात के उपचुनावों में जीत ने इस रणनीति को पुख्ता किया। क्या यह AAP का आत्मविश्वास है या गठबंधन की कमजोरियों से तंग आकर उठाया गया कदम?
कांग्रेस के साथ 'केमिस्ट्री' की कमी
AAP और कांग्रेस का रिश्ता हमेशा से तनावपूर्ण रहा है। दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में दोनों पार्टियों ने एक-दूसरे के खिलाफ कड़ा मुकाबला किया, जिसने गठबंधन की नींव को हिलाकर रख दिया। AAP का आरोप है कि कांग्रेस ने दिल्ली में उनके खिलाफ आक्रामक रुख अपनाकर बीजेपी को फायदा पहुंचाया। संजय सिंह ने तो कांग्रेस पर तंज कसते हुए रॉबर्ट वाड्रा का जिक्र किया, "10 साल से बीजेपी 'जीजाजी' चिल्ला रही है, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं।" दूसरी ओर, AAP ने हरियाणा में कांग्रेस के खिलाफ नरम रुख अपनाया था, लेकिन बदले में कांग्रेस की ओर से वैसी नरमी नहीं दिखी। अब सवाल यह है कि क्या यह आपसी अविश्वास गठबंधन तोड़ने की असली वजह बना?
वोटबैंक की जंग: एक ही मछली तालाब में नहीं
AAP और कांग्रेस का वोटबैंक काफी हद तक एक जैसा है मध्यम वर्ग, शहरी मतदाता और सामाजिक मुद्दों पर संवेदनशील लोग। दिल्ली में 2015 और 2020 के चुनावों में AAP ने कांग्रेस के वोटबैंक को बड़े पैमाने पर अपने पक्ष में किया। लेकिन 2025 में कांग्रेस ने आक्रामक रणनीति अपनाते हुए AAP के गढ़ में सेंधमारी की कोशिश की। नई दिल्ली सीट पर अरविंद केजरीवाल के खिलाफ संदीप दीक्षित और जंगपुरा में मनीष सिसोदिया के खिलाफ फरहाद सूरी को उतारकर कांग्रेस ने साफ कर दिया कि वह AAP को कमजोर किए बिना दिल्ली में अपनी जमीन वापस नहीं ले सकती। ऐसे में AAP ने सोचा क्यों न अकेले चलकर कांग्रेस के वोटबैंक को पूरी तरह हथियाया जाए।
क्षेत्रीय ताकत, राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा
AAP की नजर अब पंजाब और गुजरात जैसे राज्यों पर है, जहां उसने उपचुनावों में जीत दर्ज की। पंजाब में 2027 के विधानसभा चुनाव AAP के लिए 'लिटमस टेस्ट' होंगे, जहां कांग्रेस उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी है। गठबंधन में रहकर कांग्रेस के साथ मंच साझा करना AAP के लिए पंजाब में नुकसानदेह हो सकता है। गुजरात में भी AAP ने दिखा दिया कि वह बीजेपी और कांग्रेस, दोनों के लिए चुनौती बन सकती है। विश्लेषकों का मानना है कि AAP अपनी क्षेत्रीय ताकत को मजबूत कर राष्ट्रीय स्तर पर एक स्वतंत्र पहचान बनाना चाहती है, जैसा कि उसने 2011 के अन्ना आंदोलन के बाद किया था।
क्या बीजेपी के खिलाफ नई रणनीति?
AAP का इंडिया गठबंधन से बाहर निकलना बीजेपी के लिए फायदेमंद हो सकता है, क्योंकि विपक्षी एकता कमजोर होगी। लेकिन AAP का दावा है कि वह संसद में टीएमसी और डीएमके जैसे दलों के साथ मुद्दों पर सहयोग जारी रखेगी। संजय सिंह ने कहा, 'हम बीजेपी का डटकर विरोध करेंगे, लेकिन अपने तरीके से।' दिल्ली में यमुना की सफाई, बुलडोजर कार्रवाई और सरकारी स्कूलों जैसे मुद्दों पर AAP अपनी अलग पहचान बनाना चाहती है। ऐसे में सवाल उठता है क्या यह बीजेपी के खिलाफ एक नई, स्वतंत्र रणनीति की
AAP का 'एकला चलो' का भविष्य
AAP का इंडिया गठबंधन छोड़ना एक जोखिम भरा, लेकिन सोचा-समझा कदम है। कांग्रेस के साथ बढ़ती कटुता, खासकर दिल्ली और हरियाणा में, ने AAP को यह एहसास दिलाया कि गठबंधन में रहकर वह अपनी स्वतंत्र पहचान खो रही थी। पंजाब और गुजरात में हाल की जीत ने AAP को आत्मविश्वास दिया है कि वह अकेले भी बीजेपी और कांग्रेस को टक्कर दे सकती है। हालांकि, यह कदम विपक्षी एकता को कमजोर कर सकता है, जिसका फायदा बीजेपी को मिल सकता है। दूसरी ओर, अगर AAP अपनी क्षेत्रीय ताकत को राष्ट्रीय स्तर पर बदल पाई, तो यह भारतीय राजनीति में एक नया अध्याय लिख सकता है।
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