बलिया में 1942 की अगस्त क्रांति की वर्षगांठ तब की घटनाओं के साथ बहुत से अन्य संदर्भ भी याद करने का अवसर है। शुरुआत तब बंबई और (आज मुंबई) क...
बलिया में 1942 की अगस्त क्रांति की वर्षगांठ तब की घटनाओं के साथ बहुत से अन्य संदर्भ भी याद करने का अवसर है। शुरुआत तब बंबई और (आज मुंबई) के ग्वालिया टैंक मैदान में किए गये गांधी जी के आह्वान से करनी चाहिए। उस अवसर को तीन दिनों में बांट कर देखना जरूरी है। ग्वालिया टैंक मैदान, जो आज अगस्त क्रांति मैदान है, वहां गांधी जी ने कांग्रेस अधिवेशन के पहले दिन 7 अगस्त को भाषण किया था। इस भाषण में ही ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ की हुंकार शामिल थी। यह प्रस्ताव 8 अगस्त को कांग्रेस अधिवेशन में पारित हुआ। गांधी जी ने तभी ‘करेंगे या मरेंगे’ का नारा दिया। गांधी जी की हुंकार ओर उनके नारे, यानी ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ और ‘करेंगे या मरेंगे’ को मिलाकर क्रांति का जो प्रवाह बना, उसके दो किनारे दिखे। एक किनारा गांधी जी का अहिंसा वाला वह दृढ़ संकल्प था, जिसे उन्होंने ग्वालिया टैंक मैदान में भी रखा। उनका साफ कहना था कि वे अहिंसा के मत पर 1920 की तरह आज भी खड़े हैं। उन्होंने लोगों से अहिंसा का पालन करते हुए ही आजादी के निर्णायक आंदोलन में शामिल होने के लिए कहा। इस प्रवाह का जो दूसरा किनारा था, उसे बलिया के लोगों ने अपनाया और वह बंगाल के मेदिनीपुर और बंबई प्रांत (अब महाराष्ट्र) के सतारा निवासियों को भी सुहा रहा था। इतिहास गवाह है कि इन तीनों स्थानों ने गांधी जी के आह्वान के बाद अपने को आजाद करा लिया था। प्रमाण कहते हैं कि लोगों का रास्ता पूरी तरह अहिंसक नहीं रह पाया, बल्कि उस पर बगावत और आक्रमण के तरीके हावी रहे। आखिर ऐसा क्यों हुआ?
हम कह सकते हैं प्रारम्भिक दिनों में कि ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ के आह्वान का संपूर्ण संदेश पूरे भारत में हर जगह नहीं पहुंच पाया था। कारण यह था कि कुछ ही घंटों में प्रस्ताव के आने और उसे लोगों तक ले जाने वाले नेताओं की गिरफ्तारी हो गयी। खुद गांधी जी भी जेल में होने के कारण 1942 के बाद 1945 में ही कोई सार्वजनिक भाषण दे सके। इस बीच उनके लेख और संदेश कुछ पढ़े लिखे लोगों तक जरूर पहुंच रहे थे। आज यह बताना काफी होगा कि प्रस्ताव की रात ही गांधी सहित राष्ट्रीय नेताओं की गिरफ्तारी से लोगों में आक्रोश फैल गया।
यह आंदोलन किस रूप में शुरू हो, यह सवाल कई जगह गौड़ हो गया। जहां अहिंसक नेतृत्व रह गया था, धरना-प्रदर्शन और गिरफ्तारियों का दौर शुरू हुआ। जहां दूसरा पक्ष प्रभावी था, बगावत को अपनाया गया। बंगाल तो पहले से ही क्रांतिकारी धारा की धरती रही। एक दौर में रवींद्रनाथ टैगोर जरूर इस बात से दुखी हुए थे, कि 20 वीं शताब्दी में बंगालियों ने क्रांति की कोई बड़ी पहल नहीं की। रवींद्र बाबू के मुताबिक इसे खुदीराम बोस की शहादत ने तोड़ा और बंगाल फिर से सीना तान कर खड़ा हुआ। बाद में अप्रैल, 1930 में सूर्यसेन के नेतृत्व में चटगांव शस्त्रागार पर कब्जा और चटगांव को मुक्त करा लेने की घटना भी प्रसिद्ध है।
अगस्त क्रांति के आह्वान के बाद उसी बंगाल के मेदिनीपुर में जो कुछ हुआ, उसके परिणामस्वरूप तामलुक में मध्य दिसंबर,1942 से सितंबर, 1944 तक जातीय (राष्ट्रीय) सरकार चलायी गयी। उधर, सतारा में भी कई जगहों पर लंबे समय तक पत्रि (समानांतर) सरकार चली। इधर, बलिया में थोड़े दिन के लिए ही सही, जो सरकार बनी वह पूरे जिले में विदेशी सत्ता से आजाद रही। आजाद बलिया के जिलाधिकारी चित्तू पाण्डेय और पुलिस कप्तान महानंद मिश्र थे, तो जिले की तहसील और थानों पर भी आंदोलनकारी स्वदेशी अधिकारी बैठे।
बलिया की यह आजादी सहज ही नहीं मिली। शुरू में तो जिला मुख्यालय पर बंबई के प्रस्ताव और नेताओं की गिरफ्तारी के बाद विरोध प्रदर्शन की ही योजना थी। तीसरे दिन छात्रों के साथ पुलिस संघर्ष ने आंदोलन की धारा ही बदल दी। सैकड़ों छात्र और दो सिपाही घायल हुए। मेस्टन स्कूल (आज एलडी कलेज) के हॉस्टल और शहर के हिस्सों से छात्रों को गिरफ्तार किया गया। उन पर अमानुषिक अत्याचार से लोग उबल पड़े। पहले दिन लोगों को सूचना देने का मकसद पूरा करने वाले मात्र 18 साल के सूरज लाल को इतना पीटा गया , कि उनकी मृत्यु हो गयी। असल में, बलिया की बगावत के दौर में जिला कांग्रेस के नेताओं में उसके मंत्री राम अनंत पाण्डेय ही जेल से बाहर थे और जल्द ही उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। जिलेभर में जगह-जगह स्थानीय नेतृत्व उभरे। जुनून यह था कि ब्रिटिश सरकार के हर महकमे पर स्वदेशी कार्यकर्तां का कब्जा हो। आजादी के मतवालों ने यह कर दिखाया। इसके एवज में बलिया जिले को भारी कीमत चुकानी पड़ी। सरकारी रिकॉर्ड बलिया की उस क्रांति में 121 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करता है। हालांकि इतिहासकारों के विवरण में 84 शहीदों के नाम पता चल सके। हम उन अनाम शहीदों को भी श्रद्धांजलि दें। फिर यह भी याद करें कि बलिया में गांधी के आह्वान के बावजूद लोगों के उग्र होने का कारण उन पर हुए अत्याचार ही रहे। ऐसे अत्याचार 1942 के पहले 1921-22 में भी हुए। जानकारी मिलने पर गांधी जी ने अपने पुत्र देवदास गांधी को बलिया भेजा। फिर स्वयं महात्मा गांधी ने 9 फरवरी, 1922 को ‘नवजीवन’ अखबार में लिखा कि वहां के दमन की बात सुनकर जब मैं सोचता हूं तो खून के आंसू टपकने लगते हैं। इस दुख से बच गया तो बलिया की तीर्थ यात्रा करना चाहता हूं। बलिया जैसे बलिदान निःसंदेह इस देश को आजादी दिलाएंगे।
गांधी के ये उद्गार बलिया के बलिदान की एक झलक है। वैसे 1942 की बगावत के पीछे 1921-22 में हुए बलियावासियों पर अत्याचार और खुद 1942 में छात्रों के दमन तो कारण बने ही, पहले की घटनाएं भी बागियों के जेहन में रही होंगी। इनमें 1857 की क्रांति के दौरान बीर कुंवर सिंह के बलिया की सीमा में आने पर उनका सहयोग और सैनिक रूप में भर्ती के साथ मेरठ छावनी में मंगल पाण्डेय के विद्रोही तेवर और 42 के मात्र 11 साल पहले बलिया जेल में पत्रकार सेनानी रामदहिन ओझा के निधन की घटनाएं भी प्रेरक बनी होंगी। इन घटनाओं ने समय-समय पर बलियावासियों के तेवर तीखे किये, तो 1942 आते-आते इस तेवर को आजादी तक का अंजाम मिला। माना कि यह आजादी लंबी नहीं चली लेकिन 1942 की अगस्त क्रांति के दौरान बलिया के लोगों ने यह साफ कर दिया कि देश की जनता अब पूर्ण स्वतंत्रता से कम कुछ नहीं चाहती।
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